Thursday 22 October 2020

दुर्गाष्टमी पर भ्रम का निवारण

 *दुर्गाष्टमी 24 अक्टूबर को है, न कि 23 अक्टूबर को। पञ्चाङ्ग कि गलती के कारण ही समाज मे भ्रम फैला है।*


दुर्गाष्टमी पर दिवाकर पञ्चाङ्ग को खुला चैलेंज


कलामात्र भी यदि सूर्योदयकाल में अष्टमी तिथि उपलब्ध हो तो उस नवमी से युक्त अष्टमी में ही दुर्गाष्टमी का पर्व मनाना चाहिये। अष्टमी यदि सप्तमी से लेशमात्र भी स्पर्श हो तो उसे त्याग देना चाहिये। क्योंकि यह राष्ट्र का नाश , पुत्र, पौत्र, पशुओं का नाश करने के साथ ही पिशाच योनि देने वाली होती है।

आचार्य जी ने कहा कि मैं पञ्चाङ्ग दिवाकर एवं उन तमाम ज्योतिषियों को चैलेन्ज करता हूँ , जिन्होंने 23 अक्टूबर को अष्टमी बताया है। यह अष्टमी घातक है। पञ्चाङ्ग दिवाकर ने धर्मसिन्धु के वचन को ही प्रमाण मानकर निर्णय दे दिया है। जबकि अन्य वचनों पर ध्यान नही दिया है। जबकि निर्णयसिन्धु में स्पष्टतः सप्तमी विद्धा अष्टमी को त्यागकर लेशमात्र या कलामात्र (24 सेकंड) के लिये भी यदि अष्टमी सूर्योदयकाल में विद्यमान हो तो उसी दिन दुर्गाष्टमी का व्रत करना चाहिये। नवमी युता अष्टमी ही ग्राह्य एवं श्रेष्ठ है, जबकि सप्तमी युता अष्टमी का सर्वथा त्याग करना चाहिये। 

प्रमाणार्थ ठाकुर प्रसाद पुस्तक भंडार वाराणसी के (संवत 2068 के संस्करण) निर्णयसिंधु के पृष्ठ संख्या 354 एवं 355 पर देखा जा सकता है।

देखिये कुछ प्रमाण वाक्य-

मदनरत्न में स्मृति संग्रह से-

शरन्महाष्टमी पूज्या नवमीसंयुता सदा।

सप्तमीसंयुता नित्यं शोकसन्तापकारिणीम्।।

रूपनारायणधृते देवीपुराणे-

सप्त मीवेधसंयुक्ता यैः कृता तु महाष्टमी।

पुत्रदारधनैर्हीना भ्रमन्तीह पिशाचवत् ॥

(निर्णयसिन्धु पृष्ठ 354)

रूपनारायण में देवीपुराण का बचन है कि-जिनों ने सप्तमीवेध से युक्त महा-अष्टमी को किया वे लोग इससंसार में पुत्र, स्त्री तथा धन से हीन होकर पिशाच के सदृश भ्रमण करते हैं।


देखिये- व्रतोपवासनियमे घटिकैकापि या भवेत् । इति देवलोक्ते:। गौडा: अप्येवमाहु:।


देवल ने कहा है कि-व्रत और उपवास के नियम में जो अष्टमी एक घडी भी हो तो उसे ग्रहण करें। लेकिन इसका भी निषेधक वाक्य मिलता है। देखिये-

(सूर्योदये कालाकाष्ठादियुतामपीच्छन्ति । 'यस्यां सूर्योदयो भवेत् । इति क्षयेणाष्टम्या: सूर्योदयाSभावे तु सप्तमीविद्धा ग्राह्या) कहते हैं । 


सप्तमी कलया यत्र परतश्चाष्टमी भवेत्।

तेन शल्यमिदं प्रोक्तं पुत्रपौत्रक्षयप्रदम्।।


सप्तमीशल्यसंविद्धा वर्जनीया सदाष्टमी।

स्तोकापि सा महापुण्या यस्यां सूर्योदयो भवेत्।।


मूलयुक्तापि सप्तमीयुता चेतत्त्याज्यैवेत्युक्तं निर्णतामृते दुर्गोत्सवे मूलेनापि हि संयुक्ता सदा त्याज्याष्टमी बुधै:। लेशमात्रेण सप्तम्या अपि स्याद्यदि दूषिता।।


दिवाकर पञ्चाङ्ग में दिया गया धर्मसिन्धु के वचनों का निर्णयसिन्धु के इस वचन से प्रतिकार हो जाता है। अतः धर्मसिन्धु के वचन के आधार पर जो 23 अक्टूबर को दुर्गाष्टमी लिखा गया है, वह ग्राह्य नही है एवं पुत्रादि को नष्ट करने वाला है। अतः 24 अक्टूबर को ही दुर्गाष्टमी करना शास्त्रोचित है।


अर्थ- यदि अष्टमी तिथि का क्षय न हुआ हो तभी सप्तमीविद्धा में स्वीकार करें। यदि अष्टमी का क्षय न हुआ हो और वह सूर्योदय के बाद कलामात्र (एक पल अर्थात् 24 सेकेंड) भी विद्यमान हो तो उस नवमीयुता अष्टमी को ही ग्रहण करना चाहिये।

Saturday 17 October 2020

दुर्गा का आगमन एवं प्रस्थान विचार, वाहन एवं फल सहित स्वयं जानें।



दुर्गा आगमन विचार

दुर्गा जी के आगमन और प्रस्थान का विचार नवरात्र में कलशस्थापन के दिन के अनुसार समझें ।

शशिसूर्ये गजारूढ़ा , शनिभौमे तुरंगमे ।

गुरुशुक्रे च दोलायां बुधे नौका प्रकीर्तिता ।।

फलम् - गजे च जलदा देवी , छत्रभङ्ग तुरंगमे ।

नौकायां सर्व सिद्धिस्यात् दोलायां मरणं धुव्रम् ।।

अर्थ : रविवार और सोमवार को आगमन( नवरात्र शुरू होने का दिन) होता है तो वाहन हाथी है जो जल की वृष्टि कराने वाला है ,  शनिवार और मंगलवार को आगमन होता है तो  राजा और सरकार को पद से हटना पड़ सकता है , गुरूवार और शुक्रवार को आगमन हो तो  दोला ( खटोला ) पर आगमन होता है जो जन हानि , रक्तपात होना बताता है , बुधवार को आगमन हो तो देवी नौका ( नाव ) पर आती है  तब भक्तो को सभी  सिद्धि देती है।

देवी का प्रस्थान - विजया दशमी के दिन के वार से गणना करें -

शशिसूर्यदिने यदि सा विजया, महिषा गमनेरूज शोककरा, 

शनिभौमे यदि सा विजया चरणायुधयानकरी विकला ,

बुधशुक्रे यदि सा विजया  गजवाहनगा शुभवृष्टिकरा , 

सुरराजगुरौ यदि सा विजया नरवाहनगा शुभसौख्यकरा ।।

अर्थ: विजयादशमी यदि  रविवार और सोमवार को हो तो माँ दुर्गा  का प्रस्थान महिष ( भैसाँ) पर होता है , जो शोक देता है , यदि शनिवार और मँगलवार को विजया दशमी हो तो मुर्गा के वाहन पर जाती है तब जनता विकल तबाही का अनुभव करती है ,  यदि बुध और शुक्रवार को गमन करे तो हाथी पर जाती है माँ  तब शुभ वृष्टि देती है , गुरूवार को विजयादशमी हो तो मनुष्य की सवारी होता है जो सुख शान्ति मिलती है। आचार्य सोहन वेदपाठी 

Thursday 1 October 2020

दक्षिण दिशा में मुख्य द्वार का निर्धारण कैसे करें।

दक्षिण दिशा में द्वार देवता

दक्षिण दिशा में द्वार बनाते समय आग्नेयकोण SE से नैऋत्यकोण SW तक की लंबाई को 9 से विभाजित करके आग्नेयकोण की तरफ से क्रमशः फल समझें। जिस स्थान पर मुख्य द्वार होगा, उसका फल बताया जा रहा है।
1. अनिल-इस स्थान पर द्वार बनानेसे सन्तानकी कमी तथा मृत्यु होती है।
2. पूषा- इस स्थानपर द्वार बनानेसे दासत्व तथा बन्धनकी प्राप्ति होती है।
3. वितथ-इस स्थानपर द्वार बनानेसे नीचता तथा भय की प्राप्ति होती है।
4. बृहत्क्षत-  स्थानपर द्वार बनानेसे धन तथा पुत्र की प्राप्ति होती है।
5. यम-इस स्थानपर द्वार बनानेसे धनकी वृद्धि होती है । (मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे भयंकरता होती है।) 
6. गन्धर्व-इस स्थान पर दीवार बनाने से निर्यात तथा यशकी प्राप्ति होती है।
(मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे कृतघ्रता होती है।)
7. भृंगराज-इस स्थानपर द्वार बनानेसे निर्धनता, चोरभय तथा व्याधि भय प्राप्त होता है ।
8. मृग इस स्थान पर द्वार बनानेसे पुत्रके बलका नाश, निर्बलता तथा रोग भय होता है।
9. पिता-इस स्थान पर दीवार बनाने से पुत्र हानि, निर्धनता तथा शत्रुओंकी वृद्धि होती है।


वास्तु-विचार

Saturday 26 September 2020

भगवती दुर्गा को तिथि अनुसार कब क्या अर्पण करना चाहिये?

श्रीमद्देवीभागवत के अनुसार माँ भगवती के तिथि अनुसार भोग की वस्तु पं०जीतेन्द्र तिवारी उर्फ मुन्ना बाबा ने बताया।

(शुक्लपक्ष की)
प्रतिपदा तिथि में घृत से देवी की पूजा करनी चाहिये और ब्राह्मण को घृत (घी) का दान करना चाहिये; ऐसा करनेवाला सदा निरोग रहता है।

द्वितीया तिथि को शर्करा से जगदम्बा का पूजन करना चाहिये और विप्र को शर्करा का ही दान करना चाहिये; ऐसा करनेवाला मनुष्य दीर्घजीवी होता है।

तृतीया तिथि को भगवती के पूजन कर्म
में उन्हें दुग्ध (गाय का दूध) अर्पण करना चाहिये और श्रेष्ठ ब्राह्मण को दुग्ध(गाय का दूध) का दान करना चाहिये; ऐसा करने से मनुष्य सभी प्रकार के दुःखो से मुक्त हो जाता है।

चतुर्थी के दिन पुआ अर्पण करके देवी का पूजन करना चाहिये; ऐसा करने से मनुष्य विघ्न- बाधाओं से आक्रांत नही होता।

पंचमी तिथि को भगवती का पूजन करके उन्हें केला अर्पण करें और ब्राह्मण को केले का ही दान करें; ऐसा करने से मनुष्य बुद्धिमान होता है।

षष्ठी तिथि को भगवती के पूजन कर्म में मधु (शहद) को प्रधान बताया गया है। ब्राह्मण को मधु ही देना चाहिये; ऐसा करने से मनुष्य दिव्य कान्तिवाला हो जाता है।

हे मुनि श्रेष्ठ! सप्तमी तिथि को भगवती को गुड़ का नैवेद्य अर्पण करके ब्राह्मण को गुड़ का दान करने से मनुष्य सभी प्रकार के शोकों से मुक्त हो जाता है।

अष्टमी तिथि को भगवती को नारियल का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और ब्राह्मण को भी नारियल का दान करना चाहिये; ऐसा करनेवाला मनुष्य सभी संतापो से रहित हो जाता है।

नवमी तिथि के दिन भगवती को लावा अर्पण करने के बाद ब्राह्मण को भी लावा का दान करने से मनुष्य इस लोक में तथा परलोक में सुखी रहता है।

हे मुने! दशमी तिथि को भगवती को काले तिल अर्पित करने और ब्राह्मण को उसी तिल का दान करने से मनुष्य को यमलोक का भय नही रहता।

जो मनुष्य एकादशी तिथि को भगवती को दधि (दही) अर्पित करता है और ब्राह्मण को भी दधि प्रदान करता है; वह देवी का परम प्रिय हो जाता है।

हे मुनिश्रेष्ठ! जो द्वादशी तिथि के दिन भगवती को चिउड़े का भोग लगाकर आचार्य को भी चिउड़े का दान करता है; वह भगवती का प्रिय पात्र बन जाता है।

जो त्रयोदशी तिथि को भगवती को चना अर्पित करता है और ब्राह्मण को भी चने का दान करता है; वह प्रजाओं तथा सन्तानों से सदा सम्पन्न रहता है।

हे देवर्षे! जो मनुष्य चतुर्दशी के दिन भगवती को सत्तू अर्पण करता है और ब्राह्मण को भी सत्तू प्रदान करता है; वह भगवान शंकर का प्रिय हो जाता है।

जो पूर्णिमा तिथि को भगवती अपर्णा को खीर का भोग लगाता है और श्रेष्ठ ब्राह्मण को खीर प्रदान करता है; वह अपने सभी पितरों का उद्धार कर देता है।

विशेष:- माँ भगवती को नवरात्र में भी उपरोक्त तिथि अनुसार भोग की वस्तु अर्पण किया जाता है।

Sunday 13 September 2020

इंदिरा एकादशी का व्रत, पारण समय एवं कथा

आज 13 सितम्बर 2020 को इंदिरा एकादशी का व्रत है। 

पारण का समय - कल 14 सितम्बर 2020 को दोपहर 01:36 PM से 04:05 PM के बीच होगा।

आप मेरे फेसबुक पेज AcharyaG पर भी पहुँच सकते है।

पारण में विलंब का कारण- द्वादशी के प्रथम चरण (चतुर्थांश) में हरिवासर होता है, जो कि 14 सितम्बर को 08:50 AM तक रहेगा। प्रातःकाल ही पारण करना चाहिये। लेकिन प्रातःकाल में हरिवासर होने से नहीं हो सकेगा। मध्याह्नकाल त्याज्य है। अतः अपराह्नकाल में ही पारण किया जा सकेगा।

पारण किस वस्तु से करें- आश्विन मास में गुड़ से पारण करना चाहिये।

व्रत कथा - धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! आश्विन कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके कहिए। भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है। यह एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तथा पितरों को अ‍धोगति से मुक्ति देने वाली होती है। हे राजन! ध्यानपूर्वक इसकी कथा सुनो। इसके सुनने मात्र से ही वायपेय यज्ञ का फल मिलता है।

प्राचीनकाल में सतयुग के समय में महिष्मति नाम की एक नगरी में इंद्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते हुए शासन करता था। वह राजा पुत्र, पौत्र और धन आदि से संपन्न और विष्णु का परम भक्त था। एक दिन जब राजा सुखपूर्वक अपनी सभा में बैठा था तो आकाश मार्ग से महर्षि नारद उतरकर उसकी सभा में आए। राजा उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और विधिपूर्वक आसन व अर्घ्य दिया।

सुख से बैठकर मुनि ने राजा से पूछा कि हे राजन! आपके सातों अंग कुशलपूर्वक तो हैं? तुम्हारी बुद्धि धर्म में और तुम्हारा मन विष्णु भक्ति में तो रहता है? देवर्षि नारद की ऐसी बातें सुनकर राजा ने कहा- हे महर्षि! आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल है तथा मेरे यहाँ यज्ञ कर्मादि सुकृत हो रहे हैं। आप कृपा करके अपने आगमन का कारण कहिए। तब ऋषि कहने लगे कि हे राजन! आप आश्चर्य देने वाले मेरे वचनों को सुनो।

मैं एक समय ब्रह्मलोक से यमलोक को गया, वहाँ श्रद्धापूर्वक यमराज से पूजित होकर मैंने धर्मशील और सत्यवान धर्मराज की प्रशंसा की। उसी यमराज की सभा में महान ज्ञानी और धर्मात्मा तुम्हारे पिता को एकादशी का व्रत भंग होने के कारण देखा। उन्होंने संदेशा दिया सो मैं तुम्हें कहता हूँ। उन्होंने कहा कि पूर्व जन्म में ‍कोई विघ्न हो जाने के कारण मैं यमराज के निकट रह रहा हूँ, सो हे पुत्र यदि तुम आश्विन कृष्णा इंदिरा एकादशी का व्रत मेरे निमित्त करो तो मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है।

इतना सुनकर राजा कहने लगा कि हे महर्षि आप इस व्रत की विधि मुझसे कहिए। नारदजी कहने लगे- आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन प्रात:काल श्रद्धापूर्वक स्नानादि से निवृत्त होकर पुन: दोपहर को नदी आदि में जाकर स्नान करें। फिर श्रद्धापूर्व पितरों का श्राद्ध करें और एक बार भोजन करें। प्रात:काल होने पर एकादशी के दिन दातून आदि करके स्नान करें, फिर व्रत के नियमों को भक्तिपूर्वक ग्रहण करता हुआ प्रतिज्ञा करें कि ‘मैं आज संपूर्ण भोगों को त्याग कर निराहार एकादशी का व्रत करूँगा।

हे अच्युत! हे पुंडरीकाक्ष! मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिए, इस प्रकार नियमपूर्वक शालिग्राम की मूर्ति के आगे विधिपूर्वक श्राद्ध करके योग्य ब्राह्मणों को फलाहार का भोजन कराएँ और दक्षिणा दें। पितरों के श्राद्ध से जो बच जाए उसको सूँघकर गौ को दें तथा ध़ूप, दीप, गंध, ‍पुष्प, नैवेद्य आदि सब सामग्री से ऋषिकेश भगवान का पूजन करें।

रात में भगवान के निकट जागरण करें। इसके पश्चात द्वादशी के दिन प्रात:काल होने पर भगवान का पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराएँ। भाई-बंधुओं, स्त्री और पुत्र सहित आप भी मौन होकर भोजन करें। नारदजी कहने लगे कि हे राजन! इस विधि से यदि तुम आलस्य रहित होकर इस एकादशी का व्रत करोगे तो तुम्हारे पिता अवश्य ही स्वर्गलोक को जाएँगे। इतना कहकर नारदजी अंतर्ध्यान हो गए।

नारदजी के कथनानुसार राजा द्वारा अपने बाँधवों तथा दासों सहित व्रत करने से आकाश से पुष्पवर्षा हुई और उस राजा का पिता गरुड़ पर चढ़कर विष्णुलोक को गया। राजा इंद्रसेन भी एकादशी के व्रत के प्रभाव से निष्कंटक राज्य करके अंत में अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर स्वर्गलोक को गया। हे युधिष्ठिर! यह इंदिरा एकादशी के व्रत का माहात्म्य मैंने तुमसे कहा।


Saturday 12 September 2020

मलमास (अधिकमास) कृत्य एवं दान सामग्री

 मलमास (पुरुषोत्तम मास) में क्या करें, क्या न करें और कैसे करें?


1. पुरुषोत्तम मास की तिथ्यनुसार दान सामग्री :-

प्रतिपदा (एकम) के दिन चांदी के पात्र में घी रखकर दान करें। द्वितीया के दिन कांसे के पात्र में सोना दान करें। तृतीया के दिन चने, चने की दाल या उससे बना हुआ वस्तु का दान करें। चतुर्थी के दिन खारक का दान करना लाभदायी होता है। पंचमी के दिन गुड़ दान में दें। षष्टी के दिन अष्टगंध का दान करें। सप्तमी-अष्टमी के दिन रक्त चंदन का दान करना उचित होता है। नवमी के दिन केसर का दान करें। दशमी के दिन कस्तुरी का दान दें। एकादशी के दिन गोरोचन का दान करें। द्वादशी के दिन शंख का दान फलदाई है। त्रयोदशी के दिन घंटाल या घंटी का दान करें। चतुर्दशी के दिन मोती या मोती की माला दान में दें। पूर्णिमा/अमावस्या के दिन माणिक तथा रत्नों का दान करें।

2. दीपदान- मलमास या अधिक मास में दीपदान करने से जातक के जीवन में परेशानियों का अंधकार मिटता है और आशाओं का प्रकाश फैलता है।

3. घट दान और कांसे का सम्पुट : जल से भरे हुए घड़े का और कांसे के सम्पुट में मालपुओं का दान देना चाहिए। इस दान की महिमा के बारे में पुरुषोत्तम महात्म्य के 31वें अध्याय में बताया गया है। इसके दान से जातक को धन-धान्य की प्राप्ति होती है।



अधिकमास के आरम्भ के दिन क्या करें?

 इस मास में श्रीकृष्ण, श्रीमद्भगवतगीता, श्रीराम कथा और श्रीविष्णु भगवान के श्री नृःसिंह स्वरूप की उपासना विशेष रूप से की जाती है। जिस दिन मलमास का आरंभ हो रहा हो उस  दिन प्रात: स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान सूर्य नारायण को पुष्प, चंदन अक्षत मिश्रित जल से अर्घ्य देकर पूजन करें। अधिक मास में शुद्ध घी के मालपुए बनाकर प्रतिदिन कांसी के बर्तन में रखकर फल, वस्त्र, दक्षिणा एवं अपने सामर्थ्य के अनुसार दान करें।

क्या करें? क्या न करें? - मलमास में विवाह संस्कार, मुंडन संस्कार, नववधु का गृह प्रवेश, यज्ञोपवीत संस्कारकरना, नये वस्त्रों को धारण करना आदि कार्य इस मास में नहीं करने चाहिये। इसके अतिरिक्त नई गाड़ी खरीदना, बच्चे का नामकरण-संस्कार करना, देव-प्रतिष्ठा करना अर्थात मूर्ति स्थापना करना, कूआं, तालाब या बावड़ी आदि बनवाना, बाग अथवा बगीचे आदि भी इस मास में नहीं बनाये जाते है। काम्य व्रतों का आरंभ भी इस मास में नहीं किया जाता है। भूमि क्रय करना, सोना खरीदना, तुला या गाय आदि का दान करना भी वर्जित माना गया है। अष्टका श्राद्ध का भी निषेध माना गया है। जो काम काम्य कर्म अधिकमास से पहले ही आरंभ किये जा चुके हैं, उन्हें इस माह में किया जा सकता है। शुद्धमास में मृत व्यक्ति का प्रथम वार्षिक श्राद्ध (पंजाब में जिसे वरीना कहा जाता है) किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति अत्यधिक बीमार हो तो रोग की निवृति के लिए रुद्राभिषेक, महामृत्युंजयादि अनुष्ठान किया जा सकता है। कपिलाषष्ठी जैसे दुर्लभ योगों का प्रयोग, संतान जन्म के कृत्य, पितृ श्राद्ध, गर्भाधान, पुंसवन संस्कार तथा सीमांत संस्कार आदि किये जा सकते हैं। ऐसे संस्कार भी किये जा सकते हैं जो एक नियत अवधि में समाप्त हो रहे हों। इस मास में पराया अन्न और तामसिक भोजन का त्याग करना चाहिये।

जो व्यक्ति मलमास में पूरे माह व्रत का पालन करते हैं उन्हें भूमि पर ही सोना चाहिये। एक समय केवल सादा तथा सात्विक भोजन करना चाहिये। इस मास में व्रत रखते हुये भगवान विष्णु जी का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहिये। संपूर्ण मास व्रत, तीर्थ स्नान, भागवत पुराण, ग्रंथों का अध्ययन विष्णु यज्ञ आदि करें। जो कार्य पूर्व में ही प्रारंभ किए जा चुके हैं, उन्हें इस मास में किया जा सकता है। इस मास में मृत व्यक्ति का प्रथम श्राद्ध किया जा सकता है। रोग आदि की निवृत्ति के लिए महामृत्युंजय, रूद्र जपादि अनुष्ठान किए जा सकते हैं। इस मास में दुर्लभ योगों का प्रयोग,  संतान जन्म के कृत्य, पितृ श्राद्ध, गर्भाधान, पुंसवन सीमंत संस्कार किए जा सकते हैं।  

Wednesday 26 August 2020

अग्निवास का विचार

 प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान के पश्चात हवन करने का शास्त्रीय विधान है और हवन करने के कुछ आवश्यक नियम भी है। इसका पालन न करने पर अनुष्ठान का दुष्परिणाम आप को झेलना पड़ सकता है। सबसे महत्वपूर्ण है कि हवन के दिन अग्निवास का पता करना ताकि आपको हवन का शुभ फल प्राप्त हो।

AcharyaG.com

 नियम - अभीष्ट तिथि की संख्या में वार संख्या जोड़कर उसमें एक और जोड़ें, पुनः योग में 4 का भाग देने पर शेष 3 या 0 आने पर अग्नि का वास पृथ्वी पर होता है और वह सुख कारक होता है। शेष एक बचने पर अग्नि का वास आकाश में होता है जो प्राणघातक होता है। शेष दो बचने पर अग्नि का वास पाताल में होता है, जो धन की हानि करता है।

 नोट - तिथि की गणना शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से और वार गणना रविवार से की जाती है।

 अग्निवास का विचार कहां आवश्यक नहीं है -  विवाह, यात्रा, व्रत, मुंडन, यज्ञोपवीत, संपूर्ण प्रकार के व्रत, दुर्गा-विधान, पुत्रजन्म-कृत्य, महारुद्रव्रत, अमावस्या, ग्रहण और नित्य-नैमित्तिक कार्यों में हवन के लिए अग्निवास-चक्र देखने की आवश्यकता नहीं है।

 अग्निवास का विचार कहाँ आवश्यक है- काम्यकर्म (कामना से किया जाने वाला विधान), लाख करोड़ मंत्रों तक हवन, शांति कर्म आदि के हवन में अग्निवास चक्र का देखना नितांत आवश्यक है।


शिववास का विचार कैसे करें?

 शिववास के विना कोई भी शिव अनुष्ठान नहीं करना चाहिये।

शिव वास देखने का सूत्र- 

शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक तिथियों की कुल संख्या 30 होती है । इस तरह से कोई भी मुहूर्त देखने के लिए 1 से 30 तक की संख्या को ही लेना चाहिए ।।

तिथीं च द्विगुणी कृत्वा बाणै: संयोजयेत्तथा ।।

सप्तभिस्तु हरेद्भागं शेषाङ्के फलमादिशेत् ।।

शिववास फल:-

एकेन वासः कैलाशे द्वितीये गौरिसन्निधौ।

तृतीये वृषभारूढं सभायाञ्च चतुर्थके।।

पञ्चमे भोजने चैव क्रीडायाञ्च रसात्मके।

श्मशाने सप्तमे चैव शिववास: प्रकीर्त्तित:।।

कैलाशे च लभते सौख्यं गौर्याञ्च सुखसम्पदौ।

वृषभेs भीष्ट सिद्धि: स्यात् सभायां तापकारकौ।।

भोजने च भवेत्पीडा क्रीडायां कष्टमेव च।

श्मशाने च मरणं ज्ञेयं फलमेवं विचारयेत्।।

शिववासमविज्ञाय प्रवृत्त: शिवकर्मणि।

न तत्फलमवाप्नोति अनुष्ठानशतैरपि।।

AcharyaG.com की प्रस्तुति

शिववास का विचार 

तिथि को दुगुना करके उसमे पांच और जोड़ देना चाहिए। कुल योग में, 7 का भाग देने पर, 1.2.3. शेष बचे तो इच्छा पूर्ति होता है,

शिववास अच्छा बनता है । बाकि बचे तो हानिकारक होता है, शुभ नहीं है ।।

इसे शेष के अनुसार इस प्रकार समझना चाहिये-

१.कैलाश अर्थात = सुख,

२. गौरिसंग = सुख एवं संपत्ति, 

३.वृषभारूढ = अभीष्टसिध्दि,

४.सभा = सन्ताप,

५.भोजन = पीड़ा, 

६.क्रीड़ा = कष्ट, 

७.श्मशाने = मरण ।।

यह ध्यान रहे कि शिव-वास का विचार सकाम अनुष्ठान में ही जरूरी है।

निष्काम भाव से की जाने वाली अर्चना कभी भी हो सकती है..

ज्योतिर्लिंग-क्षेत्र, तीर्थस्थान, शिवरात्रि, प्रदोष एवं सावन के सोमवार आदि पर्वो में शिव-वास का विचार किये बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है।

Friday 21 August 2020

ऋषिपंचमी का महत्व एवं व्रत विधि

23 अगस्त 2020 को ऋषिपंचमी का व्रत है। मध्याह्नकाल में इसका यह पूजन करना चाहिये।

ऋषिपंचमी व्रत का उद्देश्य - महिलाये जब माहवारी (mc) से होती हैं तब गलती से कभी मंदिर में चली जाती हैं या कभी पूजा हो वहाँ चली जाती हैं , परपुरुषगमन, व्यभिचार, विवाहपूर्व संबंध हो तो उसका दोष लगता हैं ।उन सभी पापों से छुटकारा पाने के लिए यह व्रत स्त्रियों द्वारा किया जाना चाहिये। आजकल जब पुरुष भी इस व्रत को करते हैं तो वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है, ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। इसके करने से सभी पापों एवं तीनों प्रकार के दु:खों से छुटकारा मिलता है तथा सौभाग्य की वृद्धि होती है। जब नारी इसे सम्पादित करती है तो उसे आनन्द, शरीर-सौन्दर्य , पुत्रों एवं पौत्रों की प्राप्ति होती है।

विशेष - वैसे तो यह व्रत स्त्रियों को आजीवन निर्बाधरूप से करना चाहिये। लेकिन कई वर्ष व्रत के दिन माहवारी आ जाने के कारण व्रत नही कर सकते है। इस अवस्था में व्रत छोड़ना पड़ता है। अतः लगभग 45 से 50 वर्ष की अवस्था के बाद जब माहवारी से निवृति ( Menopause ) हो जाये तब पति-पत्नी दोनों ही इस व्रत को लगातार सात वर्षों तक करें एवं आठवें वर्ष इसका उद्यापन करें।

पश्चात्कालीन निबन्ध व्रतार्क, व्रतराज आदि ने भविष्योत्तर से उद्धृत कर बहुत-सी बातें लिखी हैं, जहाँ कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को सुनायी गयी एक कथा भी है। जब इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र वृत्र का हनन किया तो उन्हें ब्रह्महत्या का अपराध लगा। उस पाप को चार स्थानों में बाँटा गया, यथा अग्नि (धूम से मिश्रित प्रथम ज्वाला), नदियों (वर्षाकाल के पंकिल (कीचड़ युक्त ) जल), पर्वतों (जहाँ गोंद वाले वृक्ष उगते हैं) में तथा स्त्रियों (रजस्वला) में। अत: मासिक धर्म के समय लगे पाप से छुटकारा पाने के लिए यह व्रत स्त्रियों द्वारा किया जाना चाहिये।

निषेध--
इस व्रत में केवल शाकों का प्रयोग होता है । व्रतराज के मत से इस व्रत में केवल शाकों या नीवारों या साँवा (श्यामाक) या कन्द-मूलों या फलों का सेवन करना चाहिए तथा हल से उत्पन्न किया हुआ अन्न नहीं खाना चाहिये ।

कब करें -
ऋषि पञ्चमी का व्रत भाद्रपद के  शुक्ल पक्षकी पंचमी को किया जाता है। ऋषिपंचमी व्रत चतुर्थी से संयुक्त पंचमी को किया जाता है न कि षष्ठीयुक्त पंचमी को।

व्रत एवं पूजन की विधि

व्रती को नदी आदि में स्नान ( स्नान करते समय अपामार्ग के आठ पत्ते लेकर एक - एक करके हथेली पर रगड़ें एवं अपने बालों पर लगाकर स्नान करना चाहिये । इसी प्रकार अरुंधति सहित सातों ऋषियों का ध्यान करते हुये आठ बार स्नान करने चाहिये। ) तथा दैनिक कृत्य करने के उपरान्त व्रत का संकल्प करें , जो इस प्रकार है --

तिथ्यादि - नाम - गोत्र आदि का उच्चारण करने के बाद इस प्रकार से बोलें -

अहं ज्ञानतोऽज्ञानतो वा रजस्वलावस्थायां कृतसंपर्कजनितदोषपरिहारार्थमृषिपञ्चमीव्रतं करिष्ये।

ऐसा संकल्प करके अरून्धती के साथ सप्तर्षियों की पूजा करनी चाहिये ।
सातों ऋषियों (कश्यप, अत्रि भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं वसिष्ठ-इन सात ऋषियों एवं वसिष्ठ पत्नी अरुंधति) की प्रतिमाओं को पंचामृत से स्नान कराकर उन पर चन्दन , पुष्पों, सुगन्धित पदार्थों, धूप, दीप, श्वेत वस्त्रों, यज्ञोपवीतों, अधिक मात्रा में नैवेद्य से पूजा करनी चाहिए और मन्त्रों के साथ अर्ध्य चढ़ाना चाहिये।
अर्ध्यमन्त्र
सप्त ऋषि के लिये -
कश्यपोSत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोय गौतम:। 
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषय: स्मृता:॥
गृह्णन्त्वर्ध्य मया दत्तं तुष्टा भवत मे सदा॥

अरून्धती के लिए भी मन्त्र है—

अत्रेर्यथानसूया स्याद् वसिष्ठस्याप्यरून्धती। कौशिकस्य यथा सती तथा त्वमपि भर्तरि॥ 

व्रत की कथा---

इसकी दो कथा प्रसिद्ध है

सौजन्य - आचार्य सोहन वेदपाठी
मोबाइल : 9463405098

आप मेरे फेसबुक पेज पर भी इसे प्राप्त कर सकते है।
https://www.facebook.com/Acharayag

पहली कथा---

ऋषिपंचमी की कथा

सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक राजा हुए थे। वह ऋषियों के समान थे। उन्हीं के राज में एक कृषक सुमित्र था। उसकी पत्नी जयश्री अत्यंत  पतिव्रता थी। 
एक समय वर्षा ऋतु में जब उसकी पत्नी खेती के कामों में लगी हुई थी, तो वह रजस्वला हो गई। उसको रजस्वला होने का पता लग गया फिर भी वह घर के कामों में लगी रही। कुछ समय बाद वह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी आयु भोगकर मृत्यु को प्राप्त हुए। जयश्री तो कुटिया बनीं और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में आने के कारण बैल की योनी मिली, क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का कोई अपराध नहीं था। इसी कारण इन दोनों को अपने पूर्व जन्म का समस्त विवरण याद रहा। वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में उसी नगर में अपने बेटे सुचित्र के यहां रहने लगे। धर्मात्मा सुचित्र अपने अतिथियों का पूर्ण सत्कार करता था। अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को भोजन के लिए नाना प्रकार के भोजन बनवाए। 
जब उसकी स्त्री किसी काम के लिए रसोई से बाहर गई हुई थी तो एक सर्प ने रसोई की खीर के बर्तन में विष वमन कर दिया । कुतिया के रूप में सुचित्र की मां कुछ दूर से सब देख रही थी। पुत्र की बहू के आने पर उसने पुत्र को ब्रह्महत्या के पाप से बचाने के लिए उस बर्तन में मुंह डाल दिया। सुचित्र की पत्नी चन्द्रवती से कुतिया का यह कृत्य देखा न गया और उसने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल कर कुतिया को मारी। बेचारी कुतिया मार खाकर इधर-उधर भागने लगी। चौके में जो झूठन आदि बची रहती थी, वह सब सुचित्र की बहू उस कुतिया को डाल देती थी, लेकिन क्रोध के कारण उसने वह भी बाहर फिकवा दी। सब खाने का सामान फिकवा कर बर्तन साफ करके दोबारा खाना बना कर ब्राह्मणों को खिलाया।  
   रात्रि के समय भूख से व्याकुल होकर वह कुतिया बैल के रूप में रह रहे अपने पूर्व पति के पास आकर बोली, हे स्वामी! आज तो मैं भूख से मरी जा रही हूं। वैसे तो मेरा पुत्र मुझे रोज खाने को देता था, लेकिन आज मुझे मारा और खाने को कुछ भी नहीं दिया।  

तब वह बैल बोला, हे भद्रे! तेरे पापों के कारण तो मैं भी इस योनी में आ पड़ा हूं और आज बोझा ढ़ोते-ढ़ोते मेरी कमर टूट गई है। आज मैं भी खेत में दिनभर हल में जुता रहा। मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और मुझे मारा भी बहुत। मुझे इस प्रकार कष्ट देकर उसने इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया।  
    अपने माता-पिता की इन बातों को सुचित्र सुन रहा था, उसने उसी समय दोनों को भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वन की ओर चला गया। वन में जाकर ऋषियों से पूछा कि मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इन नीची योनियों को प्राप्त हुए हैं और अब किस प्रकार से इनको छुटकारा मिल सकता है। तब सर्वतमा ऋषि बोले तुम इनकी मुक्ति के लिए पत्नीसहित ऋषि पंचमी का व्रत धारण करो तथा उसका फल अपने माता-पिता को दो।
  भाद्रपद महीने की शुक्ल पंचमी को मुख शुद्ध करके मध्याह्न में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और नए रेशमी कपड़े पहनकर अरूधन्ती सहित सप्तऋषियों का पूजन करना। इतना सुनकर सुचित्र अपने घर लौट आया और अपनी पत्नीसहित विधि-विधान से पूजन व्रत किया। उसके पुण्य से माता-पिता दोनों पशु योनियों से छूट गए। इसलिए जो महिला श्रद्धापूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत करती है, वह समस्त सांसारिक सुखों को भोग कर बैकुंठ को जाती है।

सौजन्य - आचार्य सोहन वेदपाठी
मोबाइल : 9463405098

दूसरी कथा-- एक समय  विदर्भ  देश में उत्तक नाम का ब्राह्मण  अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ निवास करता था। उसके परिवार में एक पुत्र व एक पुत्री थी। पुत्र का नाम 'सुविभूषण' था जो बहुत बुद्धि वाला था। राजा ने अपनी पुत्री का विवाहअच्छे ब्राह्मण के साथ कर दिया था। भगवान की कृपा से ऐसा विधान बना कि पुत्री विधवा हो गयी। अपने धर्म के साथ वह अपने पिता के घर ही रहने लगी। अपनी कन्या को दु:खी देखकर उत्तक अपने पुत्र को घर पर छोड़कर अपनी स्त्री व पुत्री को लेकर गंगा किनारे आश्रम बनाकर रहने लगे। कन्या अपने माता-पिता की सेवा करने लगी। एक दिन काम करके थक कर कन्या एक पत्थर की शिला पर आराम करने लेट गई। आधी रात में उसके शरीर में कीड़े उत्पन्न हो गये। अपनी कन्या के शरीर पर कीड़े देखकर ब्राह्मणी बहुत विलाप करके रोती रही और बेहोश हो गयी। होश आने पर कन्या को उठाकर उत्तक ऋषि के पास ले गई और कहने लगी कि इसकी हालत ऐसी क्यों हो गई? ब्राह्मणी की बात सुनकर उत्तक अपने नेत्रों को बन्द करके ध्यान लगाकर कहने लगे कि हमारी कन्या पूर्व जन्म में ब्राह्मणी थी। इसने एक बार रजस्वला होने पर घर के सब बर्तन आदि छू लिये थे। बस इसी पाप के कारण इसके शरीर पर कीड़े पड़ गये हैं। शास्त्रों के अनुसार रजस्वला स्त्री पहले दिन चान्डालनी दूसरे दिन ब्रह्म हत्यारनी तीसरे दिन पवित्र धोबिन के समान होती है और चौथे दिन वह स्नान करने के पश्चात् शुद्ध हो जाती है। शुद्ध होने के बाद भी इसने अपनी सखियों के साथ ऋषि पंचमी का व्रत देखकर रुचि नहीं ली। व्रत के दर्शन मात्र से ही इसे ब्राह्मण कुल प्राप्त हुआ। लेकिन इसके तिरस्कार करने से इसके शरीर में कीड़े पड़ गये। ब्राह्मणी ने कहा ऐसे आश्चर्य व्रत को आप कृपा करके मुझे अवश्य बतायें। यह कथा श्री कृष्ण ने युधिष्ठरको सुनाई थी। जो स्त्री रजस्वला होकर भी घर के कामों को करती है वह अवश्य ही नरक में जाती है।

उद्यापन की विधि--

यह व्रत सात वर्षों का होता है।सप्तर्षि सहित नवग्रहादि पूजन किया जाता है। सात घड़े होते हैं और सात ब्राह्मण निमन्त्रित रहते हैं, जिन्हें अन्त में ऋषियों की सातों प्रतिमाएँ (सोने या चाँदी की) दान में दे दी जाती हैं। यदि सभी प्रतिमाएँ एक ही कलश में रखी गयी हों तो वह कलश एक ब्राह्मण को तथा अन्यों को कलशों के साथ वस्त्र एवं दक्षिणा दी जाती है।

Thursday 20 August 2020

हरितालिका (तीज) व्रत

  कल 21 अगस्त 2020 को हरितालिका तीज का व्रत है ।

              कब और कहाँ किया जाता है? 

हरितालिका तीज का व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है। हिंदी भाषी राज्यों में यह बहुलता से किया जाने वाला कठिन निर्जल व्रत है।

प्रयोजन- सुहागन अपने अखण्ड सौभाग्य की रक्षा हेतु शिवपार्वती की पूजा कर व्रत रखतीं है। कुंवारी कन्यायें यह व्रत अच्छा घर वर प्राप्त करने हेतु रखती हैं ।

 इस दिन भगवान शंकर की पार्थिवलिंग बनाकर पूजन किया जाता है और नाना प्रकार के मंगल गीतों से रात्रि जागरण किया जाता है।

   इस निर्जला कठिन व्रतानुष्ठान को हरितालिका इसलिये कहते हैं कि पार्वती की सखी उन्हें पिता के घर से हर कर घनघोर जंगल में ले गईं थीं। हरित (हरण करना) अलिका (अर्थात् सखी, सहेली) के द्वारा पार्वती का हरण किया गया था।

 शंकरजी ने पार्वती को वरदान देने के पश्चात् यह भी कहा था कि - जो स्त्री या कुवांरी इस व्रत को श्रद्धा से करेगी, उसे तुम्हारे समान अचल सुहाग प्राप्त होगा।

   यदि इस दिन कुवांरी कन्या रात्रि जागरण में शिव- पार्वती विवाह का पाठ-परायण करे अथवा पार्वती मंगल स्तोत्र का पाठ करे तो श्रेष्ठ घर एवं वर की प्राप्ति होती है ।

                             व्रतकथा

 श्री परम पावनभूमि कैलाश पर्वत पर विशाल वट वृक्ष के नीचे भगवान शिव पार्वती सभी गणों सहित बाघम्बर पर विराजमान थे। बलभद्र, वीरभद्र, भृंगी, श्रृंगी, नन्दी, अपने पहरों पर सदाशिव के दरबार की शोभा बढा रहे थे। गन्धर्वगण, किन्नर एवं ऋषिगण भगवान शिव की अनुष्टुपछन्दों से स्तुति गान में संलग्न थे, उसी सुअवसर पर देवी पार्वतीजी ने भगवान शंकर से दोंनो हाथ जोड प्रश्न किया , हे! महेश्वर मेरे बडे सौभाग्य हैं जो मैने आप सरीखे पति का वरण किया , क्या मैं जान सकती हूं कि मैंने कौन सा ऐसा पुण्य अर्जन किया है ? आप अन्तर्यामी हैं, मुझको बताने की कृपा करें ।

पार्वती जी की ऐसी प्रार्थना सुनने पर शिवजी बोले हे वरानने! तुमने अति उत्तम पुण्य का संग्रह किया था, जिससे मुझे प्राप्त किया है वह अति गुप्त है किन्तु तुम्हारे आग्रह पर प्रकट करता हूँ।

इसकी कथा है जो उस रात्रि कही जाती है। जैसे तारागणों में चन्द्रमा, नवग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, नदियों में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में सामवेद, इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है, वैसे ही व्रतों में यह व्रत श्रेष्ठ है । व्रती आज स्नान करके व्रत का संकल्प एवं सात्विक भोजन करेंगी। फिर कल 21 अगस्त को दिन के चारो प्रहर व रात्रि के चारो प्रहर शिवपूजन कर होम करतीं है रात्रि जागरण कर शिव जप , भजन आदि करती हैं फिर तीसरे दिन प्रातः फूलहरा ( सजाया गया मंडप) व पार्थिव या रेणुका के शिव लिंग का विसर्जन कर व्रत खोलती हैं।

                          मंगलाकांक्षी   

आचार्य सोहन वेदपाठी 9463405098  https://www.facebook.com/acharyag1001

Sunday 16 August 2020

एकादशी के पारण की वस्तु एवं समय निर्णय कैसे करें।

 एकादशी का पारण कब और किस वस्तु से करें ? 

स्वयं एकादशी व्रत के पारण के समय का गणना करना सीखें।

एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद एवं द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले पारण करना अति आवश्यक है।

 एकादशी व्रत का पारण हरिवासर (द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई की अवधि) के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। व्रत के पारण के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल(दिनमान का पहला पाँचवाँ हिस्सा) होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्याह्न (दिनमान का तीसरा हिस्सा) के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिये। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्याह्न के बाद पारण करना चाहिये।
विशेष - पारण में उपरोक्त नियमों के अतिरिक्त आषाढ़ शुक्ल द्वादशी (हरिशयन) को अनुराधा के प्रथम चरण , भाद्रपद शुक्ल द्वादशी (भगवान विष्णु करवट बदलते है) को श्रवण के द्वितीय चरण एवं कार्तिक शुक्ल द्वादशी ( देवोत्थान ) को रेवती के तृतीय चरण का त्याग करना चाहिये।
आचार्य सोहन वेदपाठी, संपर्क : 9463405098


किस महीने में किस वस्तु से पारण करना चाहिये ?
चैत्र - गोघृत से
वैशाख- कुशोदक से
ज्येष्ठ - तिल से
आषाढ़ - जौ के आटा से
श्रावण - दूर्वा (दूब घास) से
भाद्रपद - कूष्माण्ड (बनकोहड़ा) से
आश्विन - गुड़ से
कार्तिक - तुलसी या विल्वपत्र से
मार्गशीर्ष - गोमूत्र से
पौष - गोमय (गोबर) से
माघ - गोदुग्ध
फाल्गुन - गोदधि से