Saturday, 12 October 2024

दशहरा का संबंध न राम से है, न ही रावण से। यह विजयादशमी है। आइये आचार्य सोहन वेदपाठी से जानते हैं।

दशहरे का सम्बन्ध न राम से है न रावण से
दशहरा शक्ति पूजा का पर्व है बस
नव दिन की शक्ति आराधना के बाद दशवें दिन शस्त्र पूजा करके विजय की कामना हेतु देवी के रूप विजया का पूजन किया जाता है और यह दशमी के दिन होता है इसीलिये इसे विजयादशमी कहते है
दशों दिशाओं से शक्ति का पूजन करने के कारण विजयादशमी कहते है। दशहरा शब्द आधुनिक पत्रकारों एवं लेखकों ने जोड़ दिया। शेष राम रावण युद्ध का पूरा विवरण सन्दर्भ सहित नीचे लिखा है - 

पद्म पुराण के पातालखंड   इसका विवरण है ‘‘युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक (87 दिन)’’ 15 दिन अलग अलग युद्धबंदी 72 दिन चले महासंग्राम में लंकाधिराज रावण का संहार आश्विन शुक्ल दशमी को नहीं चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को हुआ।

घन घमंड गरजत चहु ओरा।
प्रियाहीन डरपत मन मोरा।।

रामचरित मानस हो, बाल्मीकि रामायण अथवा ‘रामायण शत कोटि अपारा’ हर जगह ऋष्यमूक पर्वत पर चातुर्मास प्रवास के प्रमाण मिलते हैं। पद्मपुराण के पाताल खंड में श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग में अश्व रक्षा के लिए जा रहे शत्रुध्न ऋषि आरण्यक के आश्रम में पहुंचते हैं। परिचय देकर प्रणाम करतेे है।
शत्रुघ्न को गले से लगाकर प्रफुल्लित आरण्यक ऋषि बोले- गुरु का वचन सत्य हुआ। सारूप्य मोक्ष का समय आ गया। उन्होंने गुरू लोमश द्वारा पूर्णावतार राम के महात्म्य का उपदेश देते हुए कहा था कि जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा आश्रम में आयेगा, रामानुज शत्रुघ्न से भेंट होगी। वे तुम्हें राम के पास पहुंचा देंगे।
इसी के साथ ऋषि आरण्यक रामनाम की महिमा के साथ नर रूप में राम के जीवन वृत्त को तिथिवार उद्घाटित करते है- जनक पुरी में धनुषयज्ञ में राम लक्ष्मण के साथ विश्वामित्र द्वारा पहुंचना और राम द्वारा धनुषभंग कर राम- सीता विवाह का प्रसंग सुनाते हुए आरण्यक ने बताया तब विवाह राम 15 वर्ष के और सीता 06 वर्ष की थी विवाहोपरांत वें 12 वर्ष अयोध्या में रहे, 27 वर्ष की आयु में राम के अभिषेक की तैयारी हुई मगर रानी कैकेई के वर मांगने पर सीता व लक्ष्मण के साथ श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास में जाना पड़ा।
वनवास में राम प्रारंभिक 3 दिन जल पीकर रहे चौथे दिन से फलाहार लेना शुरू किया। पांचवें दिन वे चित्रकूट पहुंचे, वहां पूरे 12 वर्ष रहे। 13वें वर्ष के प्रारंभ में राम लक्ष्मण और सीता के साथ पंचवटी पहुंचे। जहां शूर्पनखा को कुरूप किया।
माघ कृष्ण अष्टमी को वृन्द मुहूर्त में लंकाधिराज दशानन ने साधुवेश में सीता का हरण किया। श्रीराम व्याकुल होकर सीता की खोज में लगे रहे। जटायु का उद्धार व शबरी मिलन के बाद ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचे, सुग्रीव से मित्रता कर बालि का बध किया। आषाढ़ सुदी एकादशी से चातुर्मास प्रारंभ हुआ। शरद ऋतु के उत्तरार्द्ध यानी कार्तिक शुक्लपक्ष से वानरों ने सीता की खोज शुरू की। समुद्र तट पर कार्तिक शुक्ल नवमी को सम्पाति नामक गिद्ध ने बताया सीता लंका की अशोक - वाटिका में हैं। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थानी) को हनुमान ने छलांग लगाई , रात में लंका प्रवेश कर खोजबीन करने लगे। कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अशोक वाटिका में शिंशुपा वृक्ष पर छिप गये और माता सीता को रामकथा सुनाई। कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को वाटिका विध्वंश किया, उसी दिन अक्षय कुमार का वध किया। कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को मेघनाद ने ब्रह्मपाश में बांधकर दरबार में ले गये और लंकादहन किया। हनुमानजी कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को वापसी में समुद्र पार किया। प्रफुल्लित सभी वानरों ने नाचते गाते 5 दिन मार्ग में लगाये और मार्गशीर्ष (अगहन) कृष्ण षष्ठी को मधुवन में आकर वन ध्वंस किया।
हनुमान की अगुवाई में सभी वानर अगहन कृष्ण सप्तमी को श्रीराम के समक्ष पहुँचे। 
अगहन कृष्ण अष्टमी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र विजय मुहूर्त में श्रीराम ने वानरों के साथ दक्षिण दिशा को कूच किया और 7 दिन में किष्किंधा से समुद्र तट पहुँचे। अगहन शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक विश्राम किया।
अगहन शुक्ल चतुर्थी को रावणानुज श्रीरामभक्त विभीषण शरणागत हुआ। अगहन शुक्ल पंचमी को समुद्र पार जाने के उपायों पर परिचर्चा हुई। सागर से मार्ग याचना में श्रीराम ने अगहन शुक्ल षष्ठी से नवमी तक 4 दिन अनशन किया। दशमी को अग्निबाण का संधान हुआ तो रत्नाकर (समुद्रदेव) प्रकट हुये और सेतुबंध का उपाय सुझाया। अगहन शुक्ल दशमी से त्रयोदशी तक 4 दिन में श्रीराम सेतु बनकर तैयार हुआ।
अगहन शुक्ल चतुर्दशी को श्रीराम ने समुद्र पार सुवेल पर्वत पर प्रवास किया, अगहन शुक्ल पूर्णिमा से पौष कृष्ण द्वितीया तक 3 दिन में वानर सेना सेतुमार्ग से समुद्र पार कर पाई। पौष कृष्ण तृतीया से दशमी तक एक सप्ताह लंका का घेराबंदी चली। पौष कृष्ण एकादशी को सुक - सारन वानर सेना में घुस आये। पौष कृष्ण द्वादशी को वानरों की गणना हुई और पहचान करके उन्हें अभयदान दिया।
पौष कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक रावण ने गोपनीय ढंग से सैन्य अभ्यास किया। पौष शुक्ल प्रतिपदा को अंगद को दूत बनाकर भेजा गया। इसके बाद पौष शुक्ल द्वितीया से अष्टमी तक वानरों व राक्षसों में घमासान युद्ध हुआ। आचार्य सोहन वेदपाठी मोबाइल - 9463405098
पौष शुक्ल नवमी को मेघनाद द्वारा राम लक्ष्मण को नागपाश में बांध दिया गया। श्रीराम के कान में कपीश (हनुमान जी) द्वारा पौष शुक्ल दशमी को गरुड़ मंत्र का जप किया गया, पौष शुक्ल एकादशी को गरुड़ का प्राकट्य हुआ और उन्होंने नागपाश काटा और राम लक्ष्मण को मुक्त किया।
पौष शुक्ल द्वादशी को ध्रूमाक्ष्य बध, पौष शुक्ल त्रयोदशी को कंपन बध, पौष शुक्ल चतुर्दशी से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक 3 दिनों में कपीश नील द्वारा प्रहस्तादि का बध, माघ कृष्ण द्वितीया से चतुर्थी तक राम रावण में तुमुल युद्ध हुआ और रावण को भागना पड़ा।
रावण ने माघ कृष्ण पंचमी से अष्टमी तक 4 दिन में कुंभकरण को जगाया। माघ कृष्ण नवमी से शुरू हुए युद्ध में छठे दिन चौदस को कुंभकरण को श्रीराम ने मार गिराया।
कुंभकरण बध पर माघ कृष्ण अमावस्या को शोक में रावण द्वारा युद्ध विराम किया गया। माघ शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक युद्ध में विषतंतु आदि 5 राक्षसीे का बध हुआ। माघ शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक युद्ध में अतिकाय मारा गया।
माघ शुक्ल अष्टमी से द्वादशी तक युद्ध में निकुम्भ-कुम्भ बध, माघ शुक्ल त्रयोदशी से फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा तक युद्ध में मकराक्ष बध हुआ।
फागुन कृष्ण द्वितीया को लक्ष्मण और  मेघनाद का युद्ध प्रारंभ हुआ । सप्तमी को लक्ष्मण मूर्छित हुये एवं उपचार हुआ। इस घटना के कारण फाल्गुन कृष्ण तृतीया से सप्तमी तक 5 दिन युद्ध विराम रहा।
फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को वानरों ने यज्ञ विध्वंस किया, फाल्गुन कृष्ण नवमी से त्रयोदशी तक चले युद्ध में लक्ष्मण ने मेघनाद को मार गिराया।
इसके बाद फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को रावण ने यज्ञ दीक्षा ली और फाल्गुन कृष्ण अमावस्या को युद्ध के लिए प्रस्थान किया। फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से पंचमी तक भयंकर युद्ध में अनगिनत राक्षसों का संहार हुआ।
फाल्गुन शुक्ल षष्टी से अष्टमी तक युद्ध में महापार्श्व आदि राक्षसों का वध हुआ। फाल्गुन शुक्ल नवमी को पुनः लक्ष्मण मूर्छित हुये, सुषेण वैद्य के परामर्श पर हनुमान द्रोणागिरि पर्वत लाये और संजीवनी बूटी के प्रभाव से लक्ष्मण पुनः चैतन्य हुये।
राम-रावण युद्ध फाल्गुन शुक्ल दशमी को पुनः प्रारंभ हुआ। फाल्गुन शुक्ल एकादशी को मातलि द्वारा श्रीराम को विजयरथ प्राप्त हुआ।
फाल्गुन शुक्ल द्वादशी से रथारूढ़ राम का रावण से 18 दिनों तक युद्ध चला। चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को श्रीराम ने दशानन रावण का संहार करके सायुज्य मुक्ति प्रदान किया। 
युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक (87 दिनों) 15 दिनों का अलग अलग युद्धबंदी रही। 72 दिन चला महासंग्राम और श्रीराम विजयी हुये , चैत्र कृष्ण अमावस्या को विभीषण द्वारा रावण का दाह संस्कार किया गया।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नव संवत्सर) से लंका में नये युग का प्रारंभ हुआ। चैत्र शुक्ल द्वितीया को विभीषण का राज्याभिषेक किया गया।
अगले दिन चैत्र शुक्ल तृतीया को सीता की अग्निपरीक्षा ली गई और चैत्र शुक्ल चतुर्थी को पुष्पक विमान से राम, लक्ष्मण एवं सीता उत्तर दिशा में उड़े। चैत्र शुक्ल पंचमी को भरद्वाज के आश्रम में पहुंचें। चैत्र शुक्ल षष्ठी को नंदीग्राम में राम-भरत मिलन हुआ।
चैत्र शुक्ल सप्तमी को अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक किया गया। यह पूरा आख्यान ऋषि आरण्यक ने शत्रुघ्न को सुनाया फिर शत्रुघ्न ने आरण्यक को अयोध्या पहुंचाया जहां अपने आराध्य पूर्णावतार श्रीराम के सान्निध्य में ब्रह्मरंध्र द्वारा सारूप्य मोक्ष पाया।

Monday, 16 September 2024

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

एक बार नैमिषारण्य के निवासी ऋषियों ने संसार के कल्याणार्थ सूतजी से पूछा-। हे सूत! कराल कलिकाल में लोगों के बालक किस तरह दीर्घायु होंगे सो कहिये? सूतजी बोले-जब द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ था, उसी समय बहुत-सी शोकाकुल स्त्रियों ने आपस मे सलाह की। कि क्या इस कलि में माता के जीवित रहते पुत्र मर जायेंगे? जब वे आपस मे कुछ निर्णय नहीं कर सकीं तब गौतमजी के पास पूछने के लिये गयीं। जब उनके पास पँहुचीं, तो उस समय गौतमजी आनन्द के साथ बैठे थे। उनके सामने जाकर उन्होंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। तदनन्तर स्त्रियों ने पूछा- 'हे प्रभो! इस कलियुग में लोगों के पुत्र किस तरह जीवित रहेंगे? इसके लिये कोई व्रत या तप हो तो कृपा करके बताइये'। इस तरह उनकी बात सुनकर गौतमजी बोले-'आपसे मैं वही बात कहूँगा, जो मैंने पहले से सुन रखा है'। गौतमजी ने कहा- जब महाभारत युग का अन्त हो गया और द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के द्वारा अपने बेटों को मरा देखकर सब पाण्डव बड़े दुःखी हुए तो पुत्र के शोक से व्याकुल होकर द्रौपदी अपनी सखियों के साथ ब्राह्मण-श्रेष्ठ धौम्य के पास गयीं। और उसने धौम्य से कहा-'हे विपेंद्र! कौन -सा उपाय करने से बच्चे दीर्घायु हो सकते हैं, कृपा करके ठीक-ठीक कहिये। धौम्य बोले-सत्ययुग में सत्यवचन बोलनेवाला, सत्याचरण करनेवाला, समदर्शी जीमूतवाहन नामक एक राजा था। एक बार वह अपनी स्त्री के साथ अपनी ससुराल गया और वहीं रहने लगा। एक दिन आधी रात के समय पुत्र के शोक से व्याकुल कोई स्त्री रोने लगी। क्योकिं वह अपने बेटे के दर्शन से निराश हो चुकी थी- उसका पुत्र मर चुका था। वह रोती हुई कहती थी- 'हाय, मुझ बूढ़ी माता के सामने मेरा बेटा मरा जा रहा है।' उसका रुदन सुनकर राजा जीमूतवाहन का तो मानों हृदय विदीर्ण हो गया।
    वह तत्काल उस स्त्री के पास गया और उससे पूछा-'तुम्हारा बेटा कैसे मरा है?' बूढ़ी ने कहा-'गरूड़ प्रतिदिन आकर गाँव के लड़कों को खा जाता है'। इस पर दयालु राजा ने कहा-"माता! अब तुम रोओ मत। आनन्द से बैठो-मैं तुम्हारे बच्चे को बचाने का यत्न करता हूँ'। ऐसा कहकर राजा उस स्थान पर गया, जहाँ गरुड़ आकर प्रतिदिन मांस खाया करता था। उसी समय गरुड़ भी उस पर टूट पड़ा और मांस खाने लगा। जब अतिशय तेजस्वी गरुड़ ने राजा का बायाँ अङ्ग खा लिया तो झटपट राजा ने अपना दाहिना अङ्ग फेर कर गरुड़ के सामने कर दिया। यह देखकर गरुड़जी ने कहा-'तुम कोई देवता हो? कौन हो? तुम मनुष्य तो नही जान पड़ते। अच्छा, अपना जन्म और कुल बताओ'। पीड़ा से व्याकुल मनवाले राजा ने कहा-'हे पक्षिराज! इस तरह के प्रश्न करना व्यर्थ है, तुम अपनी इच्छा भर मेरा मांस खाओ'। यह सुनकर गरुड़ रुक गये और बड़े आदर से राजा के जन्म और कुल की बात पूछने लगे। राजा ने कहा-'मेरी माता का नाम है, शैव्या और मेरे पिता का नाम शालिवाहन है। सूर्यवंश में मेरा जन्म हुआ है और जीमूतवाहन मेरा नाम है'। राजा की दयालुता देखकर गरुड़ ने कहा-  हे महाभाग! तुम्हारे मन मे जो अभिलाषा हो वह वर माँगों'। राजा ने कहा-'हे पक्षीराज! यदि आप मुझे वर दे रहे हैं तो वर दीजिये कि, आपने अब तक जिन प्राणियों को खाया है, वे सब जीवित हो जायें। हे स्वामिन! अबसे आप यहाँ बालकों को न खायें और कोई ऐसा उपाय करें कि जहाँ जो उत्पन्न हों वे लोग बहुत दिनों तक जीवित रहें। धौम्य ने कहा कि, पक्षिराज गरुड़ राजा को वरदान देकर स्वयं अमृत के लिये नागलोक चले। वहाँ से अमृत लाकर उन्होंने उन मरे मनुष्यों की हड्डियों पर बरसाया। ऐसा करने से सबलोग जीवित हो गये, जिनको कि पहले गरुड़ ने खाया था। राजा के त्याग और गरुड़ की कृपा से वहाँवालों का बहुत कष्ट दूर हो गया। उस समय राजा के शरीर की शोभा दूनी हो गयी थी। राजा की दयालुता देखकर गरुड़ ने फिर कहा- 'मैं संसार के कल्याणार्थ एक और वरदान दूँगा। आज आश्विन कृष्ण सप्तमी से रहित शुभ अष्टमी तिथि है। आज ही तुमने यहाँ की प्रजा को जीवन दान दिया है। हे वत्स! अब से यह दिन ब्रह्मभाव हो गया है। जो मूर्तिभेद से विविध नामों से विख्यात है वही त्रैलोक्य से पूजित दुर्गा अमृत प्राप्त करने के अर्थ में जीवत्पुत्रिका कहलायी हैं। सो इस तिथि को जो स्त्रियाँ उस जीवत्पुत्रिका की और कुश की आकृति बनाकर तुम्हारी पूजा करेंगी तो दिनों-दिन उनका सौभाग्य बढ़ेगा और वंश की भी बढ़ती होती रहेगी। हे महाभाग! इस विषय में विचार करने की भी आवश्यकता नहीं है। 

हे राजन! सप्तमी से रहित और उदयातिथि की अष्टमी को व्रत करे, यानी सप्तमी विद्ध अष्टमी जिस दिन हो उस दिन व्रत न कर शुद्ध अष्टमी को व्रत करे और नवमी में पारण करे। यदि इस पर ध्यान न दिया गया तो फल नष्ट हो ही जायेगा और सौभाग्य तो अवश्य नष्ट हो जायेगा। 

जीमूतवाहन को इस तरह का वरदान देकर गरुड़ वैकुण्ठ धाम को चले गये। और राजा भी अपनी पत्नी के साथ अपने नगर को वापस चले आये। धौम्य द्रौपदी से कहते हैं- 'हे देवी! मैंने यह अतिशय दुर्लभ व्रत तुमको बताया है। इस व्रत को करने से बच्चे दीर्घायु होते हैं। हे देवि! तुम भी पूर्वोक्त विधि से यह व्रत और दुर्गाजी का पूजन करो तो तुम्हें अभिलषित फल प्राप्त होगा।' मुनिराज धौम्य की बात सुनकर द्रौपदी के हृदय में एक प्रकार का कौतूहल उत्पन्न हुआ। और पुरवासिनी स्त्रियों को बुलाकर उनके साथ यह उत्तम व्रत किया। गौतम ने कहा- यह व्रत और इसके प्रभाव को किसी एक चील ने सुन लिया और अपनी सखी सियारिन को बतलाया। इसके बाद पीपल वृक्ष की शाखा पर बैठकर उस चील ने और उस वृक्ष  के खोंते में बैठकर सियारिन ने भी व्रत किया। फिर वही मादा चील किसी उत्तम ब्राह्मण के मुँह से यह कथा सुन आयी और पीपल के खोंते में बैठी हुई अपनी सखी को सुनाया। सियारिन ने आधी कथा सुनी थी कि उसे भूख लग गयी और वह उसी समय शव से भरे हुये श्मशान पहुँची। वहाँ उसने इच्छा भर मांस का भोजन किया और चील बिना कुछ खाये-पिये रह गयी और सवेरा हो गया। सवेरे वह गौशाले में गयी और वहाँ गौ का दूध पिया। इस तरह नवमी को उसने पारण किया। कुछ दिनों बाद वे दोनों मर गयीं और अयोध्या में किसी धनी व्यापारी के घर जन्मीं। संयोग से उन दोनों का जन्म एक ही घर मे हुआ, जिसमे सियारिन ज्येष्ठ हुई और चील छोटी। वे दोनों सभी शुभ लक्षणों से युक्त थीं। इसलिये बड़ी लड़की काशीराज के और छोटी उसके मन्त्री के साथ गार्हपत्य अग्नि के सामने विधिपूर्वक ब्याही गयी। पूर्वजन्म के कर्मफल से वह मृगनयनी रानी हुई। जिस किसी भी सन्तान को उत्पन्न करती, वह मर जाती थी और पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करनेवाली मन्त्री की पत्नी ने अष्ट वसुओं के सदृश तेजस्वी आठ बेटे उत्पन्न किये और सभी जीवित रह गये। अपनी बहिन के पुत्रों को जीवित देखकर ईर्ष्यावश राजपत्नी ने अपने स्वामी से कहा कि, यदि तुम मुझे जीवित रखना चाहते हो तो इस मन्त्री के भी पुत्रों को उसी जगह भेज दो जहाँ मेरे बेटे गये हैं अर्थात इन्हें मार डालो। यह सुनकर राजा ने उस मन्त्री के पुत्रों को मारने के लिए कई प्रकार के उद्योग किये। पर मन्त्री- पत्नी ने जीवित्पुत्रिका के पुण्य-बल से बचा लिया। एक दिन राजा ने अपने आदमियों से उन पुत्रों का सिर कटवाकर पिटारी में रखवाया और वह पिटारी उनकी माता(मन्त्री-पत्नी) के पास भेज दिया। किन्तु वे आठों शिर बेशकीमती जवाहरात हो गये। और भले-चंगे वे आठों लड़के अपनी माता के पास वापस चले गये। उनको जीवित देखकर राजपत्नी को बड़ा विस्मय हुआ। अन्त में, वह मन्त्री के पत्नी के पास आयी और उसने पूछा- बहन! तुमने कौन- सा ऐसा पुण्य किया है जिससे बार-बार मारे जाने पर भी तुम्हारे बेटे नहीं मरते। इस पर मन्त्री की पत्नी ने कहा- पूर्वजन्म में मैं चील थी और तुम सियारिन। हमने और तुमने साथ-साथ  जीवित्पुत्रिका का व्रत किया था। तुमने व्रत के नियमों का भली-भाँति पालन नहीं किया था और मैंने किया था, इसी दोष से हे बहिन! तुम्हारे बेटे नहीं जीते हैं। ओ राजरानी! अब भी तुम उस जीवत्पुत्रिका व्रत को करो तो तुम्हारे बेटे दीर्घायु होंगे। मैं तुमसे सच-सच कह रही हूँ। उसके कथनानुसार रानी ने व्रत किया। तभी से उसके कई बेटे सुन्दर और दीर्घायु होकर बड़े- बड़े राजा हुए। सूतजी कहते हैं कि सब प्रकार का आनन्द देनेवाला मैंने यह दिव्य व्रत बतलाया। स्त्रियाँ चिरंजीवी सन्तान चाहती हों तो विधिपूर्वक यह व्रत करें।
।।प्रेम से बोलिये जीमूतवाहन की जय।

साभार - पं० जीतेन्द्र तिवारी (मुन्ना बाबा)
प्रतापटांड, वैशाली, बिहार।
सम्पर्क सूत्र- 9771581100

Friday, 13 September 2024

अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ? (कोई विद्वान लगता है? )

अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः? (कोई विद्वान लगता है?) 
आचार्य सोहन वेदपाठी M - 9463405098
आज आषाढ़ मास के प्रथम दिन ('आषाढस्य प्रथम दिवसे') पर कालिदास से विदुषि पत्नी विद्योत्तमा द्वारा (कालीदास द्वारा काशी से ज्ञान प्राप्ति उपरांत वापसी पर) उच्चारित प्रथम वाक्य के तीन शब्द ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ?' अर्थात - कोई विद्वान लगता है? 

विद्योत्तमा के इस आश्चर्यमिश्रित विस्मयकारी प्रश्न का आशय यह है कि, – “आपने क्या कोई विशेष उल्लेखनीय योग्यता प्राप्त कर ली है! जिससे कि मैं आपका स्वागत, अभिनन्दन और अभिवादन करूँ?"

कालीदास द्वारा ऊँट की चिल्लाहट पर 'ऊष्ट्र:' के स्थान पर ‘ऊट्र:' के गलत उच्चारण करने पर विद्योत्तमा ने कालीदास को पत्नी के लिए सही अर्थों में योग्य पति बनने हेतु, योग्यता प्राप्ति के उपरांत ही, सम्बन्ध की बात रखी, जिससे कि ऐसे योग्य पति से सम्बन्ध बनाने में पत्नी को भी गर्व और गौरव का अनुभव हो। 
जब काशी से विद्वान बन काली दास लौटे, तब उक्त प्रश्न किया गया, जिसका उचित समाधान कारक उत्तर देकर कालीदास ने विद्योत्तमा को संतुष्ट कर उसका सम्मान प्राप्त किया और आगे चल कर उक्त प्रश्न में प्रयुक्त हुए तीनों शब्दों से ही प्रारम्भ कर तीन पृथक्-पृथक् काव्य ग्रंथों की रचना की। 

'अस्ति' शब्द से 'कुमार सम्भव' का पहला श्लोक -

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा
हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वागह्यौ
स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥

'कश्चित्' शब्द से 'मेघदूत' का पहला श्लोक -

कश्चित् कान्ता विरहगुरुणा स्वाधिकारात् प्रमत्तः
शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

अर्थ - कोई यक्ष था। वह अपने काम में असावधान हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि वर्ष-भर पत्‍नी का भारी विरह सहो। इससे उसकी महिमा ढल गई। उसने रामगिरि के आश्रमों में बस्‍ती बनाई जहाँ घने छायादार
पेड़ थे और जहाँ सीता जी के स्‍नानों द्वारा पवित्र हुए जल-कुंड भरे थे। 

'वाग्विशेषः' शब्द से 'रघुवंश' का पहला श्लोक -

'वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। 
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ। 
अर्थ - शब्द और अर्थ के समान सर्वदा मिले हुए जगत के माता पिता पार्वती और शिव को प्रणाम करता हूँ।

कालीदास ने उक्त के अतिरिक्त अन्य कई काव्य और नाट्य ग्रंथ भी लिखे ।

Thursday, 5 September 2024

हरितालिका तीज व्रत की विधि 6 सितम्बर 2024


6 सितम्बर 2024, दिन - शुक्रवार को हरितालिका तीज का व्रत है। हरितालिका तीज का व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि (चतुर्थी युक्त तृतीया) को मनाया जाता है।
हरितालिक शब्द का अर्थ - हरित (हरण करना) आलिका (सखी, सहेली) अर्थात् सखी के द्वारा का हरण।

 इस व्रत का पूजन प्रातःकाल (सूर्योदय के बाद लगभग ढाई घंटे का समय) या प्रदोषकाल (सूर्यास्त के बाद लगभग दो घंटे का समय) में करने का विशेष महत्व है। 

भारतीय संस्कारों को आत्मसात किये सौभाग्यवती पत्नी अपने अखण्ड सौभाग्य की रक्षा हेतु शिवपार्वती की पूजा कर व्रत रखतीं है । कुंवारी कन्यायें यह व्रत अच्छा घर वर प्राप्त करने हेतु रखती हैं ।
 
 इस दिन भगवान शंकर की पार्थिवलिंग बनाकर पूजन किया जाता है और नाना प्रकार के मंगल गीतों से रात्रि जागरण किया जाता है।
इस निर्जला कठिन व्रतानुष्ठान को हरितालिका इसलिये कहते हैं कि पार्वती की सखी उन्हें पिता के घर से हरण कर घनघोर जंगल में ले गईं थीं। वहां पार्वती जी ने मिट्टी से पार्थिवलिंग बनाकर पूजन एवं घोर तप किया। जिससे प्रसन्न होकर शंकरजी ने पार्वती को वरदान देने के पश्चात् यह भी कहा था कि - जो स्त्री या कुवांरी इस व्रत को श्रद्धा से करेगी, उसे तुम्हारे समान अचल सुहाग प्राप्त होगा।
   यदि इस दिन कुवांरी कन्या रात्रि जागरण में शिव- पार्वती विवाह का पाठ-परायण करे अथवा पार्वती मंगल स्तोत्र का पाठ करे तो श्रेष्ठ घर वर की प्राप्ति होती है।

                      व्रतकथा
 श्री परम पावन भूमि कैलाश पर्वत पर विशाल वट वृक्ष के नीचे भगवान शिव-पार्वती सभी गणों सहित बाघम्बर पर विराजमान थे। बलभद्र, वीरभद्र, भृंगी, श्रृंगी, नन्दी, अपने पहरों पर सदाशिव के दरबार की शोभा बढा रहे थे। गन्धर्वगण, किन्नर एवं ऋषिगण भगवान शिव की अनुष्टुपछन्दों से स्तुति गान में संलग्न थे, उसी सुअवसर पर देवी पार्वतीजी ने भगवान शंकर से दोंनो हाथ जोड प्रश्न किया , हे! महेश्वर मेरे बडे सौभाग्य हैं जो मैने आप सरीखे पति का वरण किया , क्या मैं जान सकती हूं कि मैंने कौन सा ऐसा पुण्य अर्जन किया है ? आप अन्तर्यामी हैं, मुझको बताने की कृपा करें ।

पार्वती जी की ऐसी प्रार्थना सुनने पर शिवजी बोले हे वरानने! तुमने अति उत्तम पुण्य का संग्रह किया था, जिससे मुझे प्राप्त किया है वह अति गुप्त है किन्तु तुम्हारे आग्रह पर प्रकट करता हूँ। इसकी कथा है जो उस रात्रि कही जाती है। जैसे तारागणों में चन्द्रमा, नवग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, नदियों में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में सामवेद, इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है, वैसे ही व्रतों में यह हरितालीका व्रत श्रेष्ठ है। 

एक दिन पहले (व्रत वाले दिन से पहले) व्रती स्नान करके व्रत का संकल्प एवं सात्विक भोजन करेंगी। फिर दूसरे दिन (व्रत वाले दिन) के चारों प्रहर व रात्रि के चारों प्रहर शिवपूजन कर होम करतीं है, रात्रि जागरण कर शिव जप , भजन आदि करती हैं फिर तीसरे दिन प्रातः फूलहरा ( सजाया गया मंडप) व पार्थिव या रेणुका के शिव लिंग का विसर्जन कर व्रत खोलती (पारण करती) हैं। 

Monday, 2 September 2024

सोमवती अमावस्या का महत्व एवं व्रत कथा आचार्य सोहन वेदपाठी, व्हाट्सएप्प 9463405098

आज 2 सितम्बर 2024 को सोमवती अमावस्या है। जो महान पुण्य देने वाला है , आइये इसके बारें में जानते हैं।

सोमवती अमावस्या का महत्त्व - 

हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि सोमवार को अमावस्या बड़े भाग्य से ही पड़ती है, पाण्डव पूरे जीवन तरसते रहे, परंतु उनके संपूर्ण जीवन में सोमवती अमावस्या नहीं आई। किसी भी मास की अमावस्या यदि सोमवार को हो तो उसे सोमवती अमावस्या कहा जाता है।
इस दिन  यमुनादि नदियों, मथुरा  आदि तीर्थों में स्नान, गौदान, अन्नदान, ब्राह्मण भोजन, वस्त्र, स्वर्ण आदि दान का विशेष महत्त्व माना गया है। इस दिन गंगा स्नान का भी विशिष्ट महत्त्व है। यही कारण है कि गंगा और अन्य पवित्र नदियों के तटों पर इतने श्रद्धालु एकत्रित हो जाते हैं कि वहां मेले ही लग जाते हैं। सोमवती अमावस्या को गंगा तथा अन्य पवित्र नदियों में स्नान पहले तो एक धार्मिक उत्सव का रूप ले लेता था।

निर्णय सिंधु व्यास के वचनानुसार इस दिन मौन रहकर स्नान-ध्यान करने से सहस्र गोदान का पुण्य फल प्राप्त होता है। यह स्त्रियों का प्रमुख व्रत है।

सोमवार चंद्रमा का दिन हैं। इस दिन (प्रत्येक अमावस्या को) सूर्य तथा चंद्र एक सीध में स्थित रहते हैं। इसलिए यह पर्व विशेष पुण्य देने वाला होता है। सोमवार भगवान शिव जी का दिन माना जाता है और सोमवती अमावस्या तो पूर्णरूपेण शिव जी को समर्पित होती है।

इस दिन यदि गंगा जी जाना संभव न हो तो प्रात:काल किसी नदी या सरोवर आदि में स्नान करके भगवान शंकर, पार्वती और तुलसी की भक्तिपूर्वक पूजा करें। फिर पीपल के वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करें और प्रत्येक परिक्रमा में कोई वस्तु चढ़ाए। प्रदक्षिणा के समय 108 फल अलग रखकर समापन के समय वे सभी वस्तुएं ब्राह्मणों और निर्धनों को दान करें।

सौजन्य - आचार्य सोहन वेदपाठी
मोबाइल : 9463405098 

सोमवती अमावस्या व्रत की कथा - 

जब युद्ध के मैदान में सारे कौरव वंश का सर्वनाश हो गया, भीष्म पितामह शर-शैय्या पर पड़े हुए थे। उस समय युधिष्ठर भीष्म पितामह जी से पश्चाताप करने लगे, धर्मराज कहने लगे। हे पितामह! दुर्योधन की बुरी सलाह पर एवं हठ से भीम और अर्जुन के कोप से सारे कुरू वंश का नाश हो गया है। वंश का नाश देखकर मेरे हृदय में दिन रात संताप रहता है। हे पितामह! अब आप ही बताइये कि मैं क्या करू, कहाँ जाऊँ, जिससे हमें शीघ्र ही चिरंजीवी संतति प्राप्त हो। पितामह कहने लगे, हे! राजन् धर्मराज मैं तुम्हें व्रतों में शिरोमणि व्रत बतलाता हूँ जिसके करने एवं स्नान करने मात्र से चिरंजीवी संतान एवं मुक्ति प्राप्त होगी। वह है सोमवती अमावस्या का व्रत-हे राजन्! यह व्रतराज (सोमवती अमावस्या का व्रत) तुम उत्तरा से अवश्य कराओ जिससे तीनों लोकों में यश फैलाने वाला पुत्र रत्न प्राप्त होगा। धर्मराज ने कहा, कृपया पितामह इस व्रतराज के बारे में विस्तार से बताइये ये सोमवती कौन है? और इस व्रत को किसने शुरू किया। 
भीष्म जी ने कहा- हे बेटे! कांची नाम की महापुरी है, वहाँ महा पराक्रमी रत्नसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसके राज्य में देवस्वामी नामक ब्राह्मण निवास करता था उसके सात पुत्र एवं गुणवती नाम की कन्या थी। एक दिन ब्राह्मण भिक्षुक भिक्षा माँगने आया। उसकी सातों बहुओं ने अलग-अलग भिक्षा दी और सौभाग्यवती का आर्शीवाद पाया। अंत में गुणवती ने भिक्षा दी। भिक्षुक ब्राह्मण ने उसे धर्मवती होने का आर्शीवाद दिया और कहा- यह कन्या विवाह के समय सप्तपदी के बीच ही विधवा हो जायेगी इसलिए इसे धर्माचरण ही करना चाहिए। गुणवती की माँ धनवती ने गिड़गिड़ाते दीन स्वर में कहा- हे ब्राह्मण! हमारी पुत्री के वैधव्य मिटाने का उपाय कहिए। तब वह भिक्षुक कहने लगा- हे पुत्री! यदि तेरे घर सौमा आ जाए तो उसके पूजन मात्र से ही तेरी पुत्री का वैधव्य मिट सकता है। गुणवती की माँ ने कहा कि पण्डित जी यह सौमा कौन है? कहाँ निवास करती है, क्या करती है? विस्तार से बताइये। भिक्षु कहने लगा- भारत के दक्षिण में समुद्र के बीच एक द्वीप है जिसका नाम सिंहल द्वीप है। वहाँ पर एक कीर्तिमान धोबी निवास करता है। उस धोबी के यहाँ सौमा नाम की स्त्री है, वह तीनों लोकों में अपने सत्य के कारण पतिव्रत धर्म से प्रकाश करने वाली सती है। उसके सामने भगवान एवं यमराज को भी झुकना पड़ता है जो जीव उसकी शरण में जाता है तो उसका क्षण मात्र में ही उद्धार हो जाता है। सारे दुष्कर्मों, पापों का विनाश हो जाता है, अथाह सुख वैभव की प्राप्ति हो जाती है। तुम उसे अपने घर ले आओ तो आपकी बेटी का वैधव्य मिट जाएगा।
देवस्वामी के सबसे छोटे पुत्र शिवस्वामी अपनी बहिन को साथ लेकर सिंघल द्वीप को गया। रास्ते में समुद्र के समीप रात्रि में गृद्धराज के यहाँ विश्राम किया। सुबह होते ही उस गृद्धराज ने उन्हें सिंघलद्वीप पहुँचा दिया और वे सौमा के घर के समीप ही ठहर गये। इसके बाद वह दोनों भाई बहिन प्रात: काल के समय उस धोबी की पत्नी सोमा के घर की चौक को साफ़ कर उसे प्रतिदिन लीप पोत कर सुन्दर बनाते थे और उसकी देहरी पर प्रतिदिन आटे का चौक पूजकर अरहैन डाला करते थे। उसी समय से आज भी देहरी पर अरहैन डालने की प्रथा चली आ रही है। इस प्रकार इसे करते करते उन्हें वहाँ एक साल बीत गया। इस प्रकार की स्वच्छता को देखकर सोमा ने विस्मित हो कर अपने पुत्रों एवं पुत्रवधुओं से पूछा कि यहाँ कौन झाडू लगाकर लीपा पोती करता है कौन अरहैन डालता है मुझे बताओ उन्होंने कहा हमें नहीं मालूम और न ही हमने किया है तब एक दिन उस धोबिन ने रात में छिपकर पता किया तो ज्ञात हुआ कि एक लड़की आँगन में झाडू लगा रही है और एक लड़का उसे लीप रहा है। सौमा ने उन दोनों को पूछा तुम कौन हो तो उन्होंने कहा हम दोनों भाई बहन ब्राह्मण हैं। सौमा ने कहा तुम्हारे इस कार्य से मैं जल गई, मैं बर्बाद हो गयी इस पाप से मेरी जाने क्या दशा होगी हे विप्र मैं धोबिन हूँ आप ब्राह्मण हैं फिर आप यह विपरीत कार्य क्यों कर रहे हो। शिवस्वामी ने कहा यह गुणवती मेरी बहिन है इसके विवाह के समय सप्तवदी के बीच वैधव्य योग पड़ा है। आप के पास रहने से वैधव्य योग का नाश हो सकता है इसलिए हम यह दास कर्म कर रहे हैं। सोमा ने कहा अब आगे से ऐसा मत करना मैं तुम्हारे साथ चलूँगी। 
सोमा ने अपनी वधुओं से कहा मैं इनके साथ जा रही हूँ यदि मेरे राज्य में मेरा व्यक्ति मर जाए जब तक मैं लौटकर न आ जाऊँ तब तक उसका क्रिया कर्म मत करना और उसके शरीर को सुरक्षित रखना किसी के कहने पर जला मत देना। ऐसा कह दोनों को लेकर समुद्र मार्ग से होकर कांची नगरी में पहुँच गयी। सोमा को देखकर धनवती ने प्रसन्न हो उसकी पूजा अर्चना की सोमा ने अपनी मौजूदगी में गुणवती का विवाह रुद्र शर्मा के साथ सम्पन्न करा दिया फिर वैवाहिक मंत्रों के साथ हवन करवा दिया। उसके बाद सप्तसदी के बीच रुद्र शर्मा की मृत्यु हो गयी अर्दना बहिन को विधवा जानकर सारे घरवाले रोने लगे किन्तु सोमा शांत रही। सोमा ने अति विलाप देखकर अपना व्रतराज सत्य समझाया और व्रतराज के प्रभाव से होने वाला मृत्यु विनाशक पुष्प विधि पूर्वक संकल्प करके दे दिया। रुद्र शर्मा व्रतराज के प्रभाव से शीघ्र जीवित हो गया। उसी बीच उस सोमा के घर में पहले उसके लड़के मरे फिर उसका पति मरा फिर उसका जमाता भी मर गया। सोमा ने अपने सत्य से सारी स्थिति जान ली वह घर चलने लगी। उस दिन सोमवार का दिन था अमावस्या की तिथिभी थी, रास्ते में सोमा ने नदी के किनारे स्थित एक पीपल  के पेड़ के पास जाकर नदी में स्नान किया और विष्णु भगवान की पूजा करके शक्कर हाथ में लेकर 108 प्रदाक्षिणाऐं पूरी की। भीष्म जी बोले जब सोमा ने हाथ में शक्कर लेकर 108वीं प्रदक्षणा पूरी की तभी उसके पति जमाता और पुत्र भी सभी जीवित हो गये और वह नगर लक्ष्मी से परिपूर्ण हो गया। विशेष कर उसका घर धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया। चारों ओर हर्षोल्लास छा गया। भीष्म जी कहने लगे हमने यह वृतराज का फल विस्तार से कह सुनाया।
यदि सोमवार युक्त अमावस्या अर्थात सोमवती अमावस्या हो तो पुण्यकाल देवताओं को भी दुर्लभ है। तुम भी यह व्रत धारण करो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। हे अर्जुन कलियुग में जो सतिया सोमवती के चरित्र का अनुशरण करेंगी, सोमवती के गुणों का गुणवान करेंगी, वह संसार में सुयश प्राप्त करेगी। जो व्यक्ति सोम के आदर्शो का अनुसरण करेगा, धोबियों को धन देगा, सोमवती अमावस्या के दिन व्रतराज के समय धोबियों को यथा दक्षिणा देगा तथा भोज करायेगा, धोबी के बालक बालिकाओं को पुस्तक दान करेगा, वह सदा अनरता को प्राप्त करेगा। विवाह के समय कोई भी वर्ग की कन्या की माँग में सिन्दूर धोबी की सुहागिन स्त्री से भरवायेगा उसको स्वर्ण या रत्न दान करेगा तो उसकी कन्या का सुहाग दीर्घायु होता है तथा वैधव्य योग का प्रभाव नष्ट हो जाता है, जो धोबी की कन्याओं का अपमान करेगा चाहे वह ब्राह्मण ही क्यों न हो जन्म जन्म तक नरक में पड़ा रहेगा। 
जब उस ब्राह्मण ने अद्भुत चमत्कार देखा तो वह सोमा के चरणों में गिर गया धूप, दीप, पुष्प, कपूर से आरती की विभिन्न प्रकार से पूजा अर्चना की बार-बार जगत पूज्य, सर्वशक्तिमान हो युगों-युगों तक आपकी पूजा यह ब्राह्मण वंश करेगा जो उपकार आपने किया है वह भुलाने योग्य नहीं है आपके साथ-साथ आपके वंश की जो सतियां आपके चरित्र का अनुसरण करेंगी उसकी आपकी ही भाँति युगों-युगों तक पूजा होगी।